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शायद तुम वही ठहराव हो!

शायद तुम वही ठहराव हो। मेरा जीवन जब लंबे और बोझिल वाक्यों सा, सच्चाई-झूठ और सही-गलत के जालों में फंस सा जाता है। और मैं इन विचारों के बोझ को अपने सिर पर उठाये, हर्फ़ दर हर्फ़ बस बढ़ रहा होता हूँ... जब हर एक बढ़ता शब्द मुझको और ज़्यादा पेंचीदा कर जाता है और मैं इस मन के तिलिस्म से जूझता हुआ भावशून्य हो जाता हूँ। तब मुझमें कुछ भाव नहीं रहते, चल रहे होते हैं तो बस लफ्ज़...एक अच्छी कहानी की रचना के लिए नहीं; बस इन वाक्यों को पूरा करने के लिए। तब तुम किसी ठहराव की तरह,  समेट लेती हो मेरी हर जटिलता को, और सुलझा देती हो मेरे भावों की हर गुत्थी , और क्षण भर में भर देती हो मेरे शब्दों में भाव, एक अच्छी कहानी की रचना के लिए... कभी सोचता हूँ कि शायद तुम बस कल्पना हो मेरी... क्योंकि अगर तुम सच हो तो मैंने न देखा है और न देखना चाहता हूँ, इससे सुन्दर सच... इससे सुन्दर यथार्थ। - कान्हा जोशी 'उदय'

मैं, ये पहाड़ और तुम

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मैं, ये पहाड़ और तुम               - कान्हा जोशी 'उदय'  बाहर की इस दुनिया से कोसों दूर मेरे मन के भीतर एक बहुत बड़ा ख्वाहिशों का पहाड़ था। उस पहाड़ को मैं रोज़ कदम दर कदम चढ़ा करता था; एक मेहनत के सम्बल, कुछ बेफिक्री के क़दमों और जुनून की बाज़ुओं के सहारे... हाँ चढ़ने की वजह सिर्फ एक थी.... वो चोटी की धुंधली सी तस्वीर जिसे मैंने अपनी कल्पनाओं में खुद उकेरा था। उस चोटी का असली सच न मैं जानता था और न ही कोई और। बस एक यकीन था कि मेरे इस पहाड़ की ऊँचाई पर सब कुछ सबसे अच्छा होगा, वहाँ ख़ुशी होगी और सबसे ज़रूरी सुकून भी। इसी पागलपन में मैं हर आस पास की चीजों को बिना तवज्जो दिए उस ऊंचाई के रस्ते बनाता हुआ हर रोज़ निकल पड़ता था। हाँ अक्सर वक़्त और गलतियों की फिसलन मुझे औंधे मुँह गिरा दिया करती। इससे मैं दुखी होता, रुकता, परेशान होता और कभी कभी खुद को कोसता भी... पर ये सफ़र जारी रहता। उस दिन भी रास्तों से कुछ ऐसे ही फिसलकर मैं औंधे मुँह गिरा पड़ा था। सफर से हारते हुए मैंने अपनी आँखे मूँद ली। तभी मुझे एक हँसने की सी आवाज़ सुनाई दी। आँखे खोली तो देखा एक बूढ़ा आदमी, पका हुआ चेहरा, बिखरता सा शरीर, शरीर