शायद तुम वही ठहराव हो!
शायद तुम वही ठहराव हो। मेरा जीवन जब लंबे और बोझिल वाक्यों सा, सच्चाई-झूठ और सही-गलत के जालों में फंस सा जाता है। और मैं इन विचारों के बोझ को अपने सिर पर उठाये, हर्फ़ दर हर्फ़ बस बढ़ रहा होता हूँ... जब हर एक बढ़ता शब्द मुझको और ज़्यादा पेंचीदा कर जाता है और मैं इस मन के तिलिस्म से जूझता हुआ भावशून्य हो जाता हूँ। तब मुझमें कुछ भाव नहीं रहते, चल रहे होते हैं तो बस लफ्ज़...एक अच्छी कहानी की रचना के लिए नहीं; बस इन वाक्यों को पूरा करने के लिए। तब तुम किसी ठहराव की तरह, समेट लेती हो मेरी हर जटिलता को, और सुलझा देती हो मेरे भावों की हर गुत्थी , और क्षण भर में भर देती हो मेरे शब्दों में भाव, एक अच्छी कहानी की रचना के लिए... कभी सोचता हूँ कि शायद तुम बस कल्पना हो मेरी... क्योंकि अगर तुम सच हो तो मैंने न देखा है और न देखना चाहता हूँ, इससे सुन्दर सच... इससे सुन्दर यथार्थ। - कान्हा जोशी 'उदय'