मैं, ये पहाड़ और तुम


मैं, ये पहाड़ और तुम

            - कान्हा जोशी 'उदय' 

बाहर की इस दुनिया से कोसों दूर मेरे मन के भीतर एक बहुत बड़ा ख्वाहिशों का पहाड़ था। उस पहाड़ को मैं रोज़ कदम दर कदम चढ़ा करता था; एक मेहनत के सम्बल, कुछ बेफिक्री के क़दमों और जुनून की बाज़ुओं के सहारे... हाँ चढ़ने की वजह सिर्फ एक थी.... वो चोटी की धुंधली सी तस्वीर जिसे मैंने अपनी कल्पनाओं में खुद उकेरा था। उस चोटी का असली सच न मैं जानता था और न ही कोई और। बस एक यकीन था कि मेरे इस पहाड़ की ऊँचाई पर सब कुछ सबसे अच्छा होगा, वहाँ ख़ुशी होगी और सबसे ज़रूरी सुकून भी। इसी पागलपन में मैं हर आस पास की चीजों को बिना तवज्जो दिए उस ऊंचाई के रस्ते बनाता हुआ हर रोज़ निकल पड़ता था। हाँ अक्सर वक़्त और गलतियों की फिसलन मुझे औंधे मुँह गिरा दिया करती। इससे मैं दुखी होता, रुकता, परेशान होता और कभी कभी खुद को कोसता भी... पर ये सफ़र जारी रहता।

उस दिन भी रास्तों से कुछ ऐसे ही फिसलकर मैं औंधे मुँह गिरा पड़ा था। सफर से हारते हुए मैंने अपनी आँखे मूँद ली। तभी मुझे एक हँसने की सी आवाज़ सुनाई दी। आँखे खोली तो देखा एक बूढ़ा आदमी, पका हुआ चेहरा, बिखरता सा शरीर, शरीर में भरी पड़ी कई पुरानी और नयी चोटें और उन चोटों से अनवरत बहता मवाद और रक्त... वो अपने तजुर्बे की चट्टान पर खड़ा मुझे गिरता देख हँस रहा था। उसके पहाड़ की वीरान-बंज़र चोटी, उसके नए ज़ख्म और बिलख कर चूर होती आँखें बता रही थी कि अपने पहाड़ को फतह करके भी ना तो वह खुश था और न ही और लड़ सकने के लायक...उस पहाड़ की चोटी पर तन्हा खड़ा होकर वो मुझ पर शायद इसीलिए हँस रहा था क्योंकि मुझमें उसे अपना अक्स दिखाई पड़ता था। मैं कुछ पल ठहरा, गौर से देखा उसे, उस पहाड़ को, उसकी निरीहता को और उसके रास्ते को.. जिसका सीना चीर कर वह अकेले वहाँ पहुँच पाया था। मैं उठा और आगे के सफ़र के लिए खुद को तैयार करने लगा। तभी दूसरी चोटी से आवाज़ आई "रुको! क्या अभी भी हिम्मत है तुममें? क्या हासिल होगा तुम्हें?  मेरे हालात और इस शरीर से बहते मवाद और खून को देखो? क्या डरते नहीं हो तुम?"

मैं रुका, उसकी ओर देखा और मुस्कुराते हुए फिर अपनी मेहनत के सम्बल, बेफिक्री के क़दमों और जूनून की बाज़ुओं के सहारे बढ़ने लगा। रास्ता अब भी वही था पर इस बार चलने की वजह मेरी ख्वाहिशों के पहाड़ की काल्पनिक चोटी नहीं थी... वजह थी तो बस ना रुकने की चाहत। हाँ और चलने के तरीके में भी कुछ फर्क था, पहले मैं मंज़िल को सोचकर बढ़ता था अब रास्तों को जीता हूँ, गिरता हूँ तो खुद को कोसता नहीं बस कपड़ों में गलतियों की धूल झाड़कर आगे बढ़ जाता हूँ और हाँ सबसे ज़रूरी बात, अब सफ़र में कुछ देर ठहरकर मैं रिश्ते ज़रूर बना लेता हूँ; कुछ रास्तों से और कुछ लोगों से। उसकी वजह ये कि मंज़िल चाहे जैसी भी हों; मेरे पास हर वक़्त इन रिश्तों की कुछ खूबसूरत यादें, मेरे ज़ख्मों को ठीक कर सकने वाले कुछ हाथ और मेरे कन्धों पर एक सहारा तलाशते कुछ सर हमेशा मौजूद हों.....ताकि उस वक़्त गिरता और उठता कोई राहगीर मेरे तजुर्बे के पहाड़ की चोटी को देखकर अपने रास्तों पर शक न करे।



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