दीपक
है राह वो जिस पर पथिक चलते थे, चलते हैं;
हैं स्वप्न वो सब में ही जो पलते थे, पलते हैं;
ये भाव वो ही हैं जो थे उत्कृत अजंता में,
ये शब्द वो ही हैं जो थे कल्पों से चिंता में,
अब क्या है अंतर इस जगत की काल रेखा में?
अनुसूचित हुए और कट गए सब लोग लेखा में!
बस रो रहे अपने ही चयनित युद्ध में भिड़कर,
लघु हैं ये बातें जान, पर लघुता से ही चिढ़कर,
हम हैं नहीं वो जो अनत अक्षय में पलते हैं!
हम हैं निरे दीपक जो बस जलते हैं, ढलते हैं!
उदय
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