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Showing posts from June, 2020

यहीं तो है

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यहीं तो है... इस कमरे के ठीक बाहर, मेरे सुकून की तासीर... घाटियों की  हवा, ठंडे सोते का पानी, और बरगद की सी छांव लिए! खुशबू तो जैसे... आम का पहला बौर! और स्पर्श.... ठीक मरू पर टपकती बारिश की बूंदों सा! पर कैद हूं... दरवाज़े पर खड़ा वक़्त का रिज़वान, जाने नहीं देता!

फिसलती रेत

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फिसलती रेत के साथ, छीन लिए जाते हैं बेबाक ठहाके, रोक दी जाती हैं बेपरवाह दौड़ें, और रोने की आज़ादी भी.... सब कुछ एक सलीके से, ...जिसे तुम तय नहीं करते! ठीक वैसे ही, जैसे गूंथी जाती है मिट्टी! रखी जाती है पुराने चाक पर, और जिसे घुमाकर 'उन' तरीकों से, बन जाते हैं एक से बर्तन... फिर लग जाती है  कतार, सब बिकने को तैयार... लेकिन अफसोस! ..मिट्टी, मिट्टी नहीं रहती! -uday