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Showing posts from November, 2018

समंदर

गोते लगाकर ही है मुमकिन जानना इसको, हाँ इस समंदर में छिपे कुछ राज़ गहरे हैं, और भाप न हो जायें तुम जल्दी समझ लेना; मुझमें ओस की बूँदों से ये कुछ भाव ठहरे हैं। आँखें खुली मेरी तो प्यादों से घिरा पाया, मियां ये ज़िन्दगी शतरंज, हम अदने से मोहरे हैं, और अब खुदा रहता नहीं मंदिर मज़ारों में, वहाँ बस पत्थरों पर आज इंसानों के पहरे हैं। सबकी तरह मर जाओगे बस चीख कर तुम भी, तुम्हारे दर्द सुनने को यहाँ सब लोग बहरे हैं, तुम ही बताओ तुम को मैं पहचान लूँ कैसे? यहाँ लोगों के चेहरे हैं, फिर उन चेहरों पे चेहरे हैं।

बैसाखियों से शिकायत

आज मेरी बैसाखियों को कुछ गुरूर हो गया, हाँ बैसाखियाँ मेरी ज़रूरत तो नहीं, लेकिन घर पर पड़ी बैसाखियाँ, और थोड़े कमज़ोर कदम, अकसर रिश्ता जोड़ लिया करते हैं। पहले धीरे-धीरे मेरा हिस्सा बनीं, फिर मेरा सहारा, और अब मेरा अस्तित्व बनकर, मिटा रहीं हैं मुझे धीरे-धीरे... गुमाँ है उन्हें कि उनके बगैर, मेरा सफर मुकम्मल नहीं है! मेरे कमज़ोर क़दमों का कोई कल नहीं है! हाँ, ज़रूरत थी मुझे उन लकड़ी के टुकड़ों की, पर निकालकर रख दिया है उन्हें उतारकर, घर के उसी कोने पर, क्योंकि, सहारे के लिए नहीं सहना चाहिए किसी का गुरूर! धीमे कदम भी गर हर रोज़ चलेंगे तो मंज़िलों तक पहुचेंगे ज़रूर! -कान्हा जोशी 'उदय'