बैसाखियों से शिकायत


आज मेरी बैसाखियों को कुछ गुरूर हो गया,
हाँ बैसाखियाँ मेरी ज़रूरत तो नहीं,
लेकिन घर पर पड़ी बैसाखियाँ,
और थोड़े कमज़ोर कदम,
अकसर रिश्ता जोड़ लिया करते हैं।
पहले धीरे-धीरे मेरा हिस्सा बनीं,
फिर मेरा सहारा,
और अब मेरा अस्तित्व बनकर,
मिटा रहीं हैं मुझे धीरे-धीरे...
गुमाँ है उन्हें कि उनके बगैर,
मेरा सफर मुकम्मल नहीं है!
मेरे कमज़ोर क़दमों का कोई कल नहीं है!
हाँ, ज़रूरत थी मुझे उन लकड़ी के टुकड़ों की,
पर निकालकर रख दिया है उन्हें उतारकर,
घर के उसी कोने पर,
क्योंकि,
सहारे के लिए नहीं सहना चाहिए किसी का गुरूर!
धीमे कदम भी गर हर रोज़ चलेंगे तो मंज़िलों तक पहुचेंगे ज़रूर!
-कान्हा जोशी 'उदय'

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