फल पिपासु

आज जब मैं फल पिपासु चल रहा था,
थक गया था और आँखें मल रहा था!
फिर तभी सोचा कि मैं चल तो रहा हूँ,
पर नहीं मैं जानता चल क्यों रहा हूँ?
शायद धरा पर कीर्ति पाने के लिए,
जग के हृदय बन मेघ छाने के लिये,
कि हो मेरा यशगान इस संसार में,
कि कुछ करूँ हो मान इस संसार में।
फिर लगा है किन्तु प्रभुता शब्द क्या?
अंत क्या है? और है आरब्ध क्या?
कीर्ति का है कौन पा पाया फलक?
छा सकूंगा मैं भी किस सीमा तलक?
कि इस धरा पर कौन हो पाया अजय,
कह दो समय पर कौन पा पाया विजय?
वे शक्तिशाली और धुरंधर विश्वव्यापी,
देखो मिले हैं राख में वे सब प्रतापी!
जो भी ऊंचाई में थे पर्वत के सानी हो गए,
काल की एक छींक से देखो वो पानी हो गए!
ये छद्म हैं अभिमान के पर्वत मलय,
बस सत्य केवल शून्यता का है वलय!
बस काल की बढ़ती दिशा एक सत्य है,
मृत्यु की आती निशा एक सत्य है!
दूजों से मेरी दौड़ केवल झूठ है,
बस कर्म की जिजीविषा एक सत्य है!
आज मैं मायारहित कुछ खोजता हूँ,
कर्म करता हूँ नहीं कुछ सोचता हूँ,
अब तलक किस भावना में पल रहा था?
जब तलक मैं फल पिपासु चल रहा था।
- कान्हा जोशी 'उदय'








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