अनुत्तरित

मेरी वास्तविकता मेरे शब्दों से दूर है! मेरा दुःख ये है कि मैं अपनी रचनाओं को नहीं जी पाता! 

ये शायद इसीलिए कि एक मुखौटा ओढ़कर भीतर से खेद की अग्नि में जलते रहने के लिए किसी वीरता की आवश्यकता नहीं है किन्तु समाज की धारा के विपरीत अपने मूल्यों और वास्तविक व्यक्तित्व को जीने के संघर्ष में उतरने के लिए अनंत कठिनाईयों को प्रसन्नता से जी सकने का धैर्य और पराक्रम चाहिए!
कभी कभी सोचता हूँ कि व्यक्तित्व की परिभाषा क्या है? क्या समाज में स्वीकार्य होने के लिए मेरी तरफ से किये जा रहे अनैच्छिक प्रयास मेरा वास्तविक व्यक्तित्व हैं या फिर रचनाओं को लिखते समय मेरे मन में उठने वाला अंतर्द्वन्द्व और अपने मूल्यों से मेरे वास्तविक कर्मों की दूरी से उत्पन्न असहनीय झुंझलाहट?
मैं सदैव स्वयं को वर्तमान समाज की परिपाटी से कटा हुआ पाता हूँ| बंद कमरों में गर्मी से बचने के लिए एसी की कृत्रिम हवा को आराम समझने की बजाय पेड़ की छाँव में वायु के स्पर्श से अधिक सहज महसूस करता हूँ! जीवन की तेज़ी, ऊंची इमारतें और तेज़ भागती लम्बी गाड़ियां मुझे आकर्षित नहीं करती; मेरे परिचितों की दृष्टि में ये काफी अवास्तविक और असंभव आदर्श अवश्य प्रतीत होता हो किन्तु असत्य नहीं है! 
मेरे आतंरिक और बाह्य जीवन के बीच की ये खाई दिन प्रतिदिन चौड़ी होती जाती है और समय की रेत को प्रतिपल फिसलता देखकर मैं और असहज और अधीर अनुभव करने लगता हूँ! 
इस अवस्था में हर एक चीज़ और हर एक विचार पर प्रश्न खड़ा हो जाता है? यदि मेरा कोई कृत्य मेरी रचनाओं के विपरीत हो तो ऐसी परिस्थिति में क्या निष्कर्ष निकाला जाए? क्या मैं अनैतिक हूँ? अथवा ये लेखन, ये विचार और ये कविताओं से स्पंदित भावनाएं केवल खोखले भवन मात्र हैं?
कुछ भी हो किन्तु एक बात बहुत स्पष्ट है! किसी कार्य अथवा उद्देश्य हेतु विचार प्राथमिक आवश्यकता तो हैं किन्तु पर्याप्त नहीं हैं... विचारों और कर्मों का अंतर बहुत विराट है, अच्छे कर्म अच्छे विचारों से अवश्य उत्पन्न होते हैं किन्तु केवल अच्छे विचार होने से अच्छे कर्मों की पुष्टि नहीं होती! उसके लिए संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है....
शायद इसीलिए गांधी जी ने गीता का अनुसरण करने के प्रयास में अनासक्ति योग की रचना की थी न की उसके सफलता पूर्वक आचरण पर!
 

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