निशा के सामने की भोर

इस निशा के सामने की भोर,
मेरी कल्पनाओं में चमकते;
कोटि स्वप्नों के अनूठे चित्र लेकर,
चल रही प्रतिपल निरंतर...
बाहरी इस शांति के आडंबरों से,
मेरे अंतर में  यदि तुम झांक पाओ,
तो करोड़ों संशयों के बीच,
होगा एक थका हारा पथिक,
जो चल रहा है...
जो किसी दिन प्रेरणा के ज्वार से उद्विग्न होकर,
भाग पड़ता है अचानक!
तो किसी दिन हार कर और फिर पड़ा सा,
रक्त से लथपथ अकेला रेंगता है!
क्या पता है सामने एक स्रोत निर्मल,
या मरीचिका है बुलाती पास उसको!
पर जो भी हो, जैसा भी हो;
वो रुक नहीं सकता...
क्योंकि 'अंतर' के लिए चलना उसे होगा निरंतर,
हार कर भी, टूट कर भी,
बंधनों से छूट कर भी!
अपने लोचन मूंद कर जो सत्य दिखता है उसे उसके लिए,
पुष्प को जब त्याग कंटक था चुना
उस एक निश्चय के लिए...

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