उपेक्षित खामोशी



      नमस्कार मित्रों! कुछ ही समय पूर्व हम उन दिनों से दो-दो हाथ करके आए हैं जिन दिनों में एक विद्यार्थी को अनायास ही 'वक्त की कीमत' महसूस होने लगती है..जी हाँ! सही समझे आप, परीक्षा के दिनों से...परीक्षाओं की समय-सारिणी आने के साथ ही 'दिलों की घबराहट' और 'नोट्स की फोटोकॉपी कराने' का सिलसिला शुरू हो गया..जैसे-जैसे दिन करीब आने लगे छात्रों के मुख से 'आध्यात्म' और 'भगवान के प्रति अगाध श्रद्धा' के प्रवचन सुनाई देने लगे...'बड़ी मार्केट' के दुकानदारों की धूप-बत्ती की बिक्री बढ़ने लगी..और शुरू हुआ एक महत्वपूर्ण दौर..परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक अंकों की गणनाओं का दौर..परीक्षा काल में तो विद्यार्थियों की स्थिति अत्यन्त दुर्दमनीय थी...छात्रावास के गलियारों में छात्र किताबें लेकर ऐसे दिखाई देते जैसे दो दिन से लगातार सफर कर रहा यात्री बस स्टेशन पर शौचालय ढूँढ रहा हो...
     आखिरकार परीक्षाएँ समाप्त हुई...आधे खाली हुए 'अगरबत्तियों के पैकेट' और 'फोटोकॉपी कराए गए नोट्स' कमरे के बाहर फेंके जाने लगे...और अब छात्र एक दूसरे के कंधों में हाथ डालकर ऐसे घूमने लगे जैसे सांडों का एक समूह दूसरे गुट से जीतकर विजय-यात्रा पर निकला हो...उसी बीच शाम को अपनी क्षण भंगुर स्वतंत्रता की खुशी मनाकर जब दोस्तों के साथ हम वापस आए तो हमें कुछ बच्चों की आवाज़ सी सुनाई दी..निगाहें उठाकर देखा तो पाया तीन-चार छोटे-छोटे बच्चों का समूह 'भैय्या! भैय्या!' की आवाज़ें लगा रहा था...'भैय्या! रद्दी दे दो'  उनमें से एक बालक अपने नन्हे हाथों को चैनल के बंद दरवाज़े के छिद्रों से बाहर निकालते हुए बोला...'नहीं है दोस्त!' हम में से एक ने उसकी आकांक्षाओं के बाँध को तोड़ते हुए जवाब दिया..और वह फिर से उन्ही संवेदनाओं के साथ, और लोगों से गुहार लगाने लगा, ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वह उस अस्वीकृति का आदी हो गया हो..
     कुछ दिनों तक यह प्रक्रम चलता रहा..हर उस छात्र से जो उस गलियारे से गुज़र रहा हो; वो रद्दी की याचना किया करते..कई बार सविनय अस्वीकृति मिलती, कई बार उपेक्षाएँ और कई बार वो छात्रों के लिए मनोरंजन का साधन तक बन जाते...हॉस्टल के गार्ड महोदय अकसर उनको भगाने के लिए दंड लिए दौड़ लगाकर आया करते...परंतु बच्चों की स्फूर्ति के आगे उनके सफेद बाल और कंपित पैर भला कहाँ तक टिक पाते?
     उसी बीच शाम के दैनिक जलपान में जब मैं दो गिलास 'मैंगो शेक' लेकर कमरे की ओर बढ़ रहा था उसी समय मेरी नज़र चैनल पर खड़े एक बालक पर पड़ी..जैसे-जैसे मेरे और उसके बीच दूरी कम होने लगी मैं उसे गौर से देखने लगा और उतनी ही गूढ़ता से वो भीमुझे घूरने लगा.. मैंने देखा एक कृषकाय शरीर, बिखरे - रूखे बाल, गंदगी से भरे हाथों में रद्दी का थैला और चेहरे पर बच्चों में सामान्य, 'भोलेपन का आकर्षण'...और शायद उसने देखा होगा...हॉस्टल का एक सामान्य छात्र हाथों में लबालब भरे हुए दो गिलास लेकर आगे बढ़ रहा था...उसके लिए मेरी कोई महत्ता नहीं थी क्योंकि वह मुझ जैसे हज़ार लोगों को प्रतिदिन देखा करता था..लेकिन हमारे तथाकथित 'सभ्य समाज' और 'अच्छी सरकारों' की दृष्टि में उस जैसे 'गरीबों' का महत्व और उनके प्रति चिंता तो अपरिहार्य है न!
     मैं उसके पास गया और उसकी ओर एक गिलास बढ़ाते हुए बोला- 'पियोगे?' अपने नन्हे हाथों को बढ़ाकर उसने गिलास लिया और सावधानी से अपने पास रख लिया..अब बस हम दोनों में अंतर तार्किक रूप से केवल तीन मीटर की दूरी का था..परंतु वास्तविक दूरी का पता लगाने के लिए मैंने पूछा- "स्कूल जाते हो?"  'हाँ! शिशु मंदिर में..आजकल छुट्टियाँ पड़ी हैं..'  थोड़ा आत्मीय होकर उसने जवाब दिया...मैं उसके उत्तर से संतुष्ट था..और जैसे ही मैं वहाँ से जाने लगा वो बोला...'भैय्या! रद्दी है?"  मैंने अपनी असमर्थता को सांत्वना में बदलने के संकेतस्वरूप उसके सिर में हाथ फेरा...और 'देखता हूँ' बोलकर आगे निकल आया....
    उन बच्चों के झुंड में, उस छोटे बालक में और उसकी बातों में कोई खास बात न थी...ऐसे कई लोगों को तो हम रोज़ देखा करते हैं और कभी-कभी सुन भी लिया करते हैं..लगता है जैसे इन बातों अथवा इस सामान्य घटना ने नहीं अपितु इस अंतराल की गहन खामोशियों का ही प्रभाव है कि जो मैं इस विषय में कुछ लिखने को बाध्य हुआ...ये वही खामोशी है जो उस बालक के अंदर थ, जो न जाने कैसे पर मुझे अनुभव हुई और शायद ये लेख पढ़कर आपको भी महसूस हो रही हो...ये वही गूढ़ खामोशी है जो प्रतिदिन हमारे द्वारा नज़रअंदाज़ की जाती है...जिसे हम अकसर महसूस करते हैं ये वही है- 'उपेक्षित खामोशी'........
कान्हा जोशी उदय

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