पत्र
जो मेरे इस मौन पर भी,
शोर अपना कर रहे हैं!
फिर अहम के पर्वतों से,
खोल खुद के पर रहे हैं!
आज फिर कह दो उन्हें मैं एक कहानी गढ़ रहा हूं!
सुनसान दर्रों का पथिक हूं पर्वतों को चढ़ रहा हूं!
नेह के संबंध जो कल तक मेरे थे...
देखता हूं दूसरों की ओर जाते!
उगते सूरज में निहित सम्मान है जो,
खोखली करता है विश्वासों की बातें!
दूर वैभव पर टिके हर प्रेम से अब,
जो मेरा संघर्ष, असफलता समझता!
दूर झूठों पर टिके हर नेह से अब,
प्रिय मुझे जिसकी थी वो झूठी सरलता!
हूं अकेला और प्रतिद्वंदी स्वयं का,
बिन थमे हर रोज़ आगे बढ़ रहा हूं!
.....सुनसान दर्रों का पथिक हूं पर्वतों को चढ़ रहा हूं!
- उदय
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