ए बी सी डी १

जीवन में कई बार कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जिनका अर्थ या महत्व उस क्षण तो समझ नहीं आ पाता किंतु कोई आने वाला अगला पड़ाव उसके महत्व को आंखों के सामने स्पष्ट कर देता है। आज से लगभग ९ वर्ष पूर्व एक सशक्त व्यक्तित्व से मेरा परिचय हुआ। एक दिन बातों ही बातों में जब मैंने उनकी वृद्धावस्था पर टिप्पणी की तो उन्होंने एक वाक्य कहा कि "कान्हा जब तक तुम समाज की किसी आवश्यकता को पूरा करते हो तब तक तुम उसके लिए प्रासंगिक हो, वृद्धावस्था तुम्हारी शक्ति को समाप्त करती है और तुम्हें अप्रासंगिक कर देती है..."

अब ये विचार उस समय बस एक वाक्य था, स्मृति में ना जाने क्यों स्थापित था; पर आज जीवन के इस पड़ाव पर आकर इसका यथार्थ पूरी नग्नता से सामने खड़ा नज़र आता है। बात ये है कि ये केवल वृद्धावस्था तक सीमित नहीं है, ये जीवन के संघर्ष के समय का भी सत्य है। संघर्ष करने वालों और संघर्षों के प्रकार असीमित हैं किन्तु सफलता सीमित है... जितनी विशाल सफलता है, उतना ही बड़ा संघर्ष! अब क्योंकि संघर्ष करने वालों की संख्या अधिक है, और संघर्षमय रहते हुए वो समाज की किसी आवश्यकता की सिद्धि नहीं करते तो सबके लिए अप्रासंगिक हो जाते हैं! 

ये बात किसी भी समाज के लिए सच है पर भारतीय समाज इस दृष्टि से अनूठा है। हमारी दृष्टि में किसी व्यक्ति का महत्व उसके गुण नहीं उसके परिणामों से निर्धारित होता है...हमारी दृष्टि में विवेकानंद तब तक केवल अदने से बाबा हैं जब तक वे शिकागो सम्मेलन में विदेशियों से प्रशंसा नहीं लूट लेते। हम टैगोर की कविताओं को तब तक रहस्यवाद का पागलपन ही समझते हैं जब तक वो नोबल पुरूस्कार प्राप्त नहीं कर लेते। रहाणे का एक शतक उसको बड़ा समझदार खिलाड़ी बना देता है तो किसी मैच में गिल्लियां बिखर जाने पर पूरा भारत गुस्साए सांडों की तरह गालियों कि बौछार करने लगता है।

सार्त्र ने जब अस्तित्ववाद की अवधारणा दी उसने अपने निर्णयों पर अडिग रहकर प्रामाणिकता से जीवन जीने की बात की। उसके दर्शन में स्पष्ट था कि खुद लिए गए निर्णयों के लिए संघर्ष करने पर आवश्यक नहीं की तुम्हें हर बार सफलता मिले पर फिर भी एक संतोषजनक जीवन के लिए यही एकमात्र उपाय है। सही भी है... सही, गलत, सफलता और असफलता से अधिक आत्मनिष्ठ तो कुछ भी नहीं! नीरव मोदी और माल्या जी ऊंचे प्रतिमानों को छूकर भी असफल और गलत हैं, तो मध्यकाल के फक्कड़ कबीर जिनकी वाणी आज भी बॉलीवुड गानों के लिरिक्स में सुनाई दे जाती है उस समय के हिसाब से सफल भी थे और सही भी!

तो भैय्या बातें तो काफी बखार दिए पर ये तो कहें कि करें क्या? तो जवाब है "कुछ नहीं"!!!बाबू ये जीवन है, सब लड़ रहें हैं, कुछ बाहरी लड़ाइयां, कुछ अंतर्मन की....और यकीन मानो - कि ना तो तुम किसी की प्रतिभा को पहचान सकते हो, ना उसके भविष्य को और ना ही उसके विचारों को....ये बात समझ लो मियां कि ब्रह्मांड के छोर से देखने पर तुम्हारा अस्तित्व तुम्हारे सर के एक बाल की मोटाई जितना भी नहीं। इसीलिए अगर भूले भटके रास्ते पर कोई अन्तर्जगत या बाहरी लड़ाई लड़ता व्यक्ति दिखे, तो कृपया उस समय अपनी सही गलत की तराजू अपनी जेब में डाल लें, और अगर उसके कंधों पर विश्वास की थाप न दे सकें तो कृपया अनचाहा सरदर्द भी न दें! धन्यवाद!



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