मकान और घर

मकान और घर
             - कान्हा जोशी 'उदय'

हमने सुना है... 
हमने सुना है कि मकान और घर में अंतर होता है। सभी कहते तो हैं कि मकान, मकान ही है केवल....बस गारे, ईंटों और पत्थरों का एक खास संयोजन! जब मकान सोचने के लिए आंखें बंद होती हैं तो कोई एक मूर्त छवि आंखों में नहीं आ पाती...। हां पर घर की बात कुछ और है...आंखें बंद करते ही घर के बारे में सोचते हुए जो पहला स्पष्ट चित्र दिखता है वो केवल मस्तिष्क तक सीमित नहीं रहता, बल्कि आगे बढ़कर सुख दुख की सभी भावनाओं से बनी एक मिली जुली लेकिन सुकून  भरी लहर को पूरे अंतर्मन तक भर देता है।

हर बार घर के बारे में सोचते हुए दिमाग के किसी कोने में दुबककर बैठी कोई स्मृति जैसे फिर से जीवित हो आंखों के सामने आ जाती है। कभी बचपन की वो शाम दिख जाती है जिसमें हम हमउम्र बच्चे, कुछ पुराने और कुछ खुद बनाए सेंसलस खेलों को आंगन या छत में घंटों घंटों खेल रहे होते थे तो कभी उसी बचपन में लगी वो चोटें याद आती हैं जिन पर बोरोप्लस का सदाबहार मरहम लगाया जाता था और जिन्हें छुपाने की पुरज़ोर कोशिशों के बावजूद भी चोट के साथ साथ डांट के दोहरे दर्द से हम शायद ही कभी बच पाए।

बड़े होने पर अकसर हम बदलते हैं, हमारे शहर बदलते हैं, मकान भी बदलते रहते हैं...पर कभी घर नहीं बदल पाता! क्योंकि केवल घर ही है जो हमारी बहुत सारी पहली घटनाओं का साक्षी है! हमारे पहले रूदन का, पहली तुतलाती ज़बान का, पहले लड़खड़ाते कदमों का, पहली नाकामयाबी के आसुओं का और पहली जीत की खुशियों का भी। अपने घर की छत से अनुभव किए गए हज़ारों सूर्योदय और सूर्यास्तों की छवियां, चांद के बदलते रूपों को देखते हुए किए गए चिंतन और गुपचुप सबसे छिपकर खुद से की गई कुछ राज़ की बातें जो शायद केवल हममें और घर की उन शिलाओं में सदा के लिए अंकित रह गई हैं; ज़रूर अपने आप में अनूठी हैं जिन्हें कभी किसी दूसरी खुशी से बदला नहीं जा सकता!

अब जब समय घर से अकसर दूर बीतता है, तो ये छवियां बेतरतीब सी दिमाग में आती जाती रहती हैं! कभी बढ़ते जीवन के बीच घर की बाल्कनी की ठंडी हवा का स्पर्श अनुभव होता है तो कभी दीवार पर बरसों से टंगी पुरानी पेंटिंग याद आती है लेकिन जैसे ही बीते कल में फिर से जीने के लिए मन डुबाना चाहता हूं तो तट पर खड़ा वर्तमान आवाज़ लगाकर मुझे बाहर खींच लेता है...और फिर एक बार मैं अपने आस पास की दीवारों से बने मकान को अपना नया घर बनाने की कोशिश में निकल पड़ता हूं!



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