अग्नि

अग्नि

 - कान्हा जोशी 'उदय'

कुछ कोयले बुझते नहीं,
सुलगते हैं लगातार,
...धीरे, धीरे!
बाहर से नहीं,
भीतर ही भीतर चुपचाप!
अंगीठी के पास बैठा आदमी,
पहचान नहीं पाता,
बुझते कोयले की तपिश!
लेकिन ढीठ कोयला,
छोड़ता नहीं....
अपनी ऐंठन, अपना ताप!
अंगीठी में परत है,
राख की, पराजय की,
पर नीचे कहीं दबी है,
...कोयले में बसी,
भीषण अग्निलीक,
जो ऊपर है - हर हार के,
और हर जीत के भी।
हर घृणा के,
हर प्रीत के भी....
शायद इसीलिए क्योंकि,
...क्षणभंगुर है अंगीठी और कोयला,
पर शाश्वत है 'अग्नि'


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