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Showing posts from December, 2020

ए बी सी डी १

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जीवन में कई बार कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जिनका अर्थ या महत्व उस क्षण तो समझ नहीं आ पाता किंतु कोई आने वाला अगला पड़ाव उसके महत्व को आंखों के सामने स्पष्ट कर देता है। आज से लगभग ९ वर्ष पूर्व एक सशक्त व्यक्तित्व से मेरा परिचय हुआ। एक दिन बातों ही बातों में जब मैंने उनकी वृद्धावस्था पर टिप्पणी की तो उन्होंने एक वाक्य कहा कि "कान्हा जब तक तुम समाज की किसी आवश्यकता को पूरा करते हो तब तक तुम उसके लिए प्रासंगिक हो, वृद्धावस्था तुम्हारी शक्ति को समाप्त करती है और तुम्हें अप्रासंगिक कर देती है..." अब ये विचार उस समय बस एक वाक्य था, स्मृति में ना जाने क्यों स्थापित था; पर आज जीवन के इस पड़ाव पर आकर इसका यथार्थ पूरी नग्नता से सामने खड़ा नज़र आता है। बात ये है कि ये केवल वृद्धावस्था तक सीमित नहीं है, ये जीवन के संघर्ष के समय का भी सत्य है। संघर्ष करने वालों और संघर्षों के प्रकार असीमित हैं किन्तु सफलता सीमित है... जितनी विशाल सफलता है, उतना ही बड़ा संघर्ष! अब क्योंकि संघर्ष करने वालों की संख्या अधिक है, और संघर्षमय रहते हुए वो समाज की किसी आवश्यकता की सिद्धि नहीं करते तो सबके लिए अप्रासंगि

तपिश

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सांझ ढलते आसमां ने तारों के दीपक जलाए ताकि तन्हा एक मुसाफिर राह अपनी जान पाए छाले पैरों में पड़े जो हर दिलासा बेअसर है सोई दुनिया में वो जागा चल रहा किसको खबर है धुंध आगे, रात गहरी, एक दिए की लौ जली है उस दिए की रोशनी से ज़िन्दगी कितनी पली हैं एक क़दम है सामने, औ' उस क़दम पर ही नज़र है सोई दुनिया में वो जागा चल रहा किसको खबर है - उदय

नूर-ए-सहर

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अपनी आंखों से हैं पाले रात के सारे पहर! और क्या कीमत भरूं तू ही बता नूर-ए-सहर? (  नूर-ए-सहर - light of the dawn; पहर - unit of time) मुस्कुराकर पी रहा हूं घूंट उन प्यालों से मैं, जिनमें साकी ने भरी है थोड़ी मय, थोड़ा ज़हर! ( साकी - bartender, मय - liquor) कल रात श्मशानों से ऐसी आ रही आवाज़ थी, किसकी दुनियां? कौन राजा? कैसा घर? किसका शहर? - कान्हा जोशी उदय