बीज
दबकर पग पग इन भारों से,
हाँ टूट गए होंगे मानव,
शव नहीं चिरंतन बीज हूँ मैं,
मिट्टी में जो दब सृजित हुआ!
तारों पर निर्भरता से,
जो ताप तजे वो पूर्ण कहाँ,
मैं चंद्र नहीं, हूँ सूर्य स्वयं,
खुद निशा चीर जो उदित हुआ!
कल के अमृत की आशा में,
जग त्याग रहा जल के झरने,
मैं वर्तमान का हूँ शंकर,
जो गटक हलाहल विजित हुआ!
- कान्हा जोशी ' उदय'
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